प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति व शिक्षा के केन्द्र
उपनयन संस्कार -
यज्ञोपवीत संस्कार या जनेऊ संस्कार।
बालक के गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते समय होने वाला संस्कार।
उपनयन का अर्थ है - गुरु के समीप ले जाना।
यज्ञोपवीत का अर्थ - इस संस्कार में बालक को यज्ञ से पवित्र किया गया धागा पहनाया जाता है।
संस्कार का अर्थ - संस्कार वे होते हैं , जो व्यक्ति को किसी कार्य विशेष को करने के लिए योग्य बनाते हैं।
बिस्मिल्लाह - कार्य प्रारंभ करना।
बिस्मिल्लाह की तुलना उपनयन संस्कार के साथ की गई है।
उपनयन संस्कार से एक दिन पहले माता पिता बच्चे को अलग रखते हैं , यह जानने के लिए कि वह गुरुकुल में माता पिता के बिना रह पाएगा या नहीं।
गुरु स्वयं बच्चे को लेने आते हैं। वे बच्चे का हाथ अपने हृदय पर रखकर बोलते हैं , " मैं तेरा गुरू हूँ और अग्नि देवता की ओर से तेरा गुरू हूँ। "
अग्नि को महत्व इसलिए दिया गया है , क्योंकि आश्रम में जब शिष्य अकेला हो तब पशुओं से उसकी रक्षा अग्नि देवता कर सके।
बच्चे की रक्षा के लिए गुरू उसे अग्नि देवता को सौंप देते थे।
शिष्यों द्वारा भिक्षा में अनाज इसलिए लाया जाता था , ताकि उनमें विनम्रता का भाव विकसित हो सके।
समावर्तन संस्कार -
बालक की शिक्षा समाप्ति और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के समय होने वाला संस्कार।
सामान्यतः गुरू शिष्य को शिक्षा देने के लिए कोई शुल्क नहीं लेते थे।
गुरू के जीवन निर्वाह के लिए राजा व धनी लोगों से करमुक्त भूमि मिलती थी। इससे मिलने वाले कर से गुरू का जीवन निर्वाह होता था।
शिष्यों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरू को दक्षिणा दे।
कौत्स ऋषि के मना करने पर भी वर्तन्तु गुरू दक्षिणा देने की जिद करता है तो गुरू उसे दस करोड़ मुद्राएं दक्षिणा के रूप में देने को कहते हैं। वह राजा रघु से मुद्रायें लाकर देता है।
ब्रह्मचर्य आश्रम - प्राचीन भारत में बालक की शिक्षा ब्रह्मचर्य आश्रम से प्रारंभ होती थी।
ब्रह्मचर्य का अर्थ है - सत्य के मार्ग पर चलना।
इस आश्रम में प्रवेश का समय ब्राह्मण , क्षत्रिय व वैश्य के लिए अलग अलग होता था।
प्राचीन भारत में शूद्र को सामान्यतः शिक्षा प्राप्ति का अधिकार नहीं दिया गया।
किन्तु छान्दोग्य उपनिषद में सत्यकाम जाबालि व जनश्रुति की कथा मिलती है , जो बताती है कि शूद्र से शिक्षा प्राप्ति का अधिकार पूरी तरह नहीं छीना गया था।
ब्राह्मण , क्षत्रिय व वैश्य को संयुक्त रूप से द्विज वर्ण कहा जाता है।
द्विज का अर्थ है - दो बार जन्म लेना।
ब्राह्मण , क्षत्रिय व वैश्य का उपनयन संस्कार द्वारा दूसरा जन्म होता है।
ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रारंभ उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार से होता है।
उपनयन का अर्थ है - बालक को गुरु के समीप ले जाना।
इस संस्कार में बालक को यज्ञ से पवित्र किया गया धागा पहनाया जाता है , इस कारण इस संस्कार को यज्ञोपवीत भी कहा गया।
ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति समावर्तन संस्कार से होती थी।
इसके बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता था।
महाभारत के अनुसार , " विद्या से बड़ा कोई नेत्र नहीं है व सत्य से बड़ा कोई तप नहीं है। "
" विद्या के बिना मनुष्य पशु के समान है। "
कौटिल्य के अनुसार , " शिक्षा जीविकोपार्जन का साधन है। " किन्तु इसे केवल जीविका चलाने तक ही सीमित मानने वालों की आलोचना की गई है।
वर्तमान की विश्वविद्यालय शिक्षा पद्धति में सहायक आचार्य , सह आचार्य व आचार्य पदनाम मिलते हैं। ये पदनाम प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति से लिए गए हैं।
उपकुर्वाण -
वह बालक विद्यार्थी , जो शिक्षा समाप्ति के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है
नैष्ठिक या अंतेवासी -
वह बालक विद्यार्थी , जो जीवनपर्यंत गुरू आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करता था
सद्योवहा -
वह बालिका विद्यार्थी , जो शिक्षा समाप्ति के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करती थी।
ब्रह्मवादिनी -
वह बालिका विद्यार्थी , जो जीवनपर्यन्त गुरू आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थी।
तीर्थकाक -
वह विद्यार्थी , जो एक शिक्षक को छोड़कर अन्य शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करता है।
सतिर्थ्य -
वह विद्यार्थी , जो जीवनपर्यन्त एक ही शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करता है।
श्रोत्रिय -
वेदों को कंठस्थ करके उनका ज्ञान देने वाला।
बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार , " केवल संतान उत्पत्ति से ही पितृ ऋण से मुक्ति नहीं मिलती है। बल्कि संतान की उचित शिक्षा की व्यवस्था करना भी जरूरी है।
ब्रह्मयज्ञ का सम्पादन व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चलकर या स्वाध्याय करके कर सकता है।
ऋषि ऋण का सम्पादन व्यक्ति अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धा ज्ञापित करके कर सकता है।
अध्यापक - वैज्ञानिक व लौकिक साहित्य का ज्ञान कराने वाला।
गुरू - वह गृहस्थ व्यक्ति , जो ज्ञान देने का कार्य करता है। ( जीवन के अनुभवों का ज्ञान देने वाला )
उपाध्याय - वे शिक्षक , जो केवल जीविकोपार्जन के लिए अध्यापन करने का कार्य करते थे।
प्राचीन भारत में हड़प्पा काल से ही शिक्षा व्यवस्था की जानकारी मिलती है।
इस सभ्यता के लोग लेखन कला से परिचित थे।
लेकिन , अभी तक इस सभ्यता की लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है।
शिक्षा को वेदांग में प्रथम स्थान पर रखा गया है।
शिक्षा को वेद रूपी शरीर की नाक कहा गया है।
प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में कहा गया है कि मनुष्य शिक्षा के द्वारा देवलोक को भी जीत सकता है।
भारत में शिक्षा का विकास हड़प्पा काल से माना जाता है।
व्यवस्थित रूप से शिक्षा का विकास वैदिक युग से माना जाता है।
प्राचीन भारत में शिक्षा व्यवस्था का विस्तृत उल्लेख सर्वप्रथम वैदिक काल में मिलता है।
वैदिक काल व उपनिषदों के समय शिक्षा को लेकर भेदभाव नहीं किया जाता था।
प्रारंभ में शिक्षा देने का अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास ही था। लेकिन , उत्तरवैदिक काल में क्षत्रियों ने भी शिक्षा दी।
राजा जनक ने याज्ञवल्क्य ऋषि को शिक्षा दी थी।
प्राचीन भारत में स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था।
पूर्व वैदिक काल ( 1500 से 1000 BC ) की विदुषी स्त्रियों में लोपामुद्रा , घोषा , सिकता , अपाला व विश्वतारा का नाम मिलता है।
घोषा चर्म रोग के कारण अविवाहित रही थी।
उत्तरवैदिक काल ( 1000 से 600 BC ) में गार्गी , गन्धर्व , गृहिता व मैत्रेयी का नाम मिलता है।
प्राचीन भारत में शिक्षा के विषय -
कौटिल्य ने शिक्षा के विषय आन्वीक्षिकी , त्रयी , वार्ता व दण्डनीति बताए हैं।
वेदत्रयी -
त्रिवेद में ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद को ही शामिल किया जाता है।
अथर्ववेद को यज्ञ क्रियाओं के लिए उपयुक्त ग्रन्थ नहीं माना जाता है , अतः इसे त्रिवेद में शामिल नहीं किया गया है।
त्रयी का अर्थ है - तीन वेदों में बतलाई गई विद्या।
प्रस्थान त्रयी में उपनिषद , ब्रह्मसूत्र व गीता को शामिल किया जाता है।
प्रस्थान त्रयी में सबसे प्रमुख ग्रन्थ है - उपनिषद।
समस्त उपनिषद गायें है , श्रीकृष्ण दुहिता है , अर्जुन बछड़ा है और हम सभी विद्वान गीता रूपी अमृत ज्ञान का सेवन करने वाले है।
उपनिषदों का सरलीकरण है - गीता।
वार्ता -
कृषि , पशुपालन व वाणिज्य को संयुक्त रूप से वार्ता कहा जाता है।
दण्डनीति - राजनीति से संबंधित।
कालिदास ने शिक्षा के 14 विषय बताए।
वेद , वेदांग , पुराण , मीमांसा , न्याय व धर्मशास्त्र।
मीमांसा का अर्थ है - विवेचन।
प्राचीन धर्मशास्त्रों का इतिहास नामक पुस्तक पी वी कर्ण ( पांडुरंग वामन कर्ण ) ने लिखी।
इस पुस्तक के 6 भाग है।
अग्रहार - प्राचीन भारत में राजा ब्राह्मणों व मन्दिरों को करमुक्त भूमि देते थे , जिसे अग्रहार दान कहा गया।
करमुक्त भूमि से ब्राह्मणों व मन्दिरों को कर प्राप्ति होती थी , जिससे उनका जीविकोपार्जन होता था।
सामान्यतः प्राचीन भारत में गुरू बच्चे को पढ़ाने के लिए धन नहीं लेते थे , किन्तु यह अपेक्षा की जाती थी कि विद्यार्थी गुरु दक्षिणा दे।
कौत्स ऋषि के द्वारा वर्तन्तु से 11 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा के रूप में माँगी गई।
राजा रघु से प्राप्तकर वर्तन्तु ने स्वर्ण मुद्राएं कौत्स ऋषि को दी थी।
सूत्रकाल ( 600 से 300 BC ) में शिक्षा देने का अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास ही था।
प्राचीन भारत में शिक्षा के उद्देश्य भी बताए गए।
व्यक्ति का सर्वांगीण विकास
व्यक्तित्व का निर्माण
सामाजिक सुख व कौशल में वृद्धि
नागरिकों के कर्तव्यों का ज्ञान
संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन
प्राचीन भारत में शिक्षा के केन्द्र
बौद्ध शिक्षा के केन्द्र -
बौद्ध शिक्षा पद्धति का प्रारंभ स्वयं बुद्ध ने किया था।
बुद्ध प्रश्नोत्तर विधि के द्वारा ज्ञान देते थे।
बुद्ध शिक्षा पद्धति में पबज्जा व उपसम्पदा जैसे संस्कारों का उल्लेख मिलता है।
नालन्दा शिक्षा केन्द्र -
नालन्दा का निर्माण बुद्ध के समय ही हो गया था।
सामान्यतः कुमारगुप्त प्रथम ( 415 से 455 ईस्वी ) के द्वारा इस शिक्षा केन्द्र का निर्माण माना जाता है।
नालन्दा शिक्षा केन्द्र को दान देने वाला प्रथम व्यक्ति कुमारगुप्त प्रथम था।
मौर्य सम्राट अशोक ने नालन्दा में एक विहार बनवाया था।
नालन्दा गुप्तकाल से पहले ही शिक्षा केन्द्र बन चुका था।
500 श्रेष्ठियों ने 10 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं व्यय करके बुद्ध को नालन्दा का क्षेत्र दिया था।
नालन्दा विश्वविद्यालय के खर्च के लिए 200 गाँव दान में दिए गए थे।
स्वेनच्वांग ( श्वेनत्सांग ) ही ह्वेनसांग है।
हर्षवर्द्धन ( 606 से 647 ) के समय शीलभद्र ( बंगाल वासी ) नालन्दा के कुलपति थे।
शीलभद्र से पहले नालन्दा के कुलपति धर्मपाल थे , जो काँची ( तमिलनाडु ) के थे।
ह्वेनसांग के अनुसार , नालन्दा शिक्षा केन्द्र को दान देने वाला पहला गुप्त शासक शक्रादित्य ( कुमारगुप्त प्रथम ) था।
कुमारगुप्त के अलावा बुद्धगुप्त , तथागत गुप्त , नरसिंह गुप्त व व्रज नामक गुप्त राजाओं ने भी नालन्दा शिक्षा केन्द्र को दान दिया था।
पूर्व मध्यकाल ( 7वीं शताब्दी से 1206 ईस्वी ) -
राजपूत युग , उत्तर प्राचीन काल या सामन्तवाद का युग।
पूर्व मध्यकाल में बौद्ध धर्म को सर्वाधिक सपोर्ट करने वाले शासक बंगाल के पाल वंश के थे।
भारत में बौद्ध धर्म का द्वितीय संस्थापक - देवपाल।
बंगाल के पालवंशी राजा देवपाल ( 810 से 850 ) , जिसे भारत में बौद्ध धर्म की पुनर्स्थापना करने वाला कहा जाता है।
इसने नगरहार ( जलालाबाद - पाकिस्तान ) के वीरदेव को नालन्दा शिक्षा केन्द्र का प्रधान नियुक्त किया था।
नालन्दा में महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी।
नालन्दा विश्वविद्यालय में सात विशालकाय कक्ष व 300 छोटे कक्ष थे।
इत्सिंग के अनुसार , यहाँ पर 10,000 विद्यार्थी अध्ययन करते थे।
नालन्दा के पुस्तकालय का नाम धर्मरंज था , जो तीन भवनों रत्नसागर , रत्नोदधि व रत्नरंजक से मिलकर बना था।
नालन्दा में नागार्जुन , असंग , वसुबंधु व धर्मकीर्ति के द्वारा अध्ययन किया गया था।
माध्यमिक दर्शन ( शून्यवाद ) के प्रणेता - नागार्जुन।
नागार्जुन कुषाण वंश के शासक कनिष्क ( 78 से 101 ईस्वी ) के समकालीन थे।
शक संवत कनिष्क ने 78 ईस्वी में चलाया।
विक्रम संवत - 57 या 58 BC
गुप्त संवत - 319 AD
स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार , गुप्तकाल में काल गणना गुप्त संवत के आधार पर होती थी।
नागार्जुन ने प्रज्ञापारमिता सूत्र , शून्यासप्तति , माध्यमिक कारिका व विग्रह व्यावर्तनी आदि ग्रन्थ लिखे।
वसुबंधु को गुप्तकाल का लेखक बताया जाता है।
विक्रमशिला शिक्षा केन्द्र -
संस्थापक - बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल ( 770 से 810 ईस्वी )
ऐतिहासिक दृष्टि से विक्रमशिला बंगाल में आता था , किन्तु वर्तमान में यह स्थान बिहार में स्थित है।
विक्रमशिला के सबसे बड़े भवन को विज्ञान भवन कहा जाता था।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के नियंत्रण में 6 महाविद्यालय थे।
इस विश्वविद्यालय में दीपंकर , रत्नाकर शांति , अभयशंकर , रक्षित , ज्ञानपद व जेतारी जैसे बौद्ध विद्वानों ने अध्यापन करवाया था।
विक्रमशिला के आचार्यों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था।
इस विश्वविद्यालय में सर्वाधिक विदेशी छात्र तिब्बत के आते थे।
यहाँ का एक छात्रावास तिब्बत के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित रखा जाता था।
तिब्बत के लोग आज भी स्वयं को सभ्य बनाने का श्रेय भारत के बौद्ध विद्वानों को देते है।
मुहम्मद गौरी के गुलाम इख्तायरुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला व नालन्दा शिक्षा केन्द्र को नष्ट कर दिया था।
बख्तियार खिलजी ने 1203 में बंगाल पर आक्रमण किया।
इस समय बंगाल पर सेन वंश के राजा लक्ष्मणसेन का शासन था। गीत गोविंद के रचयिता जयदेव इन्हीं के समय हुए थे।
वल्लभी -
श्यामलदास के अनुसार , मेवाड़ का गुहिल वंश वल्लभी ( गुजरात ) से आया था।
जैन धर्म की द्वितीय संगीति वल्लभी में हुई थी।
वल्लभी बंदरगाह भी रहा था।
वल्लभी में सर्वप्रथम विहार का निर्माण राजकुमारी टड्डा के द्वारा करवाया गया था।
वल्लभी शिक्षा केन्द्र के निर्माण में पहला नाम राजकुमारी टड्डा का आता है।
580 में राजा धरसेन ने भी श्री बप्पयपद नामक विहार का निर्माण करवाया था।
वल्लभी शिक्षा केन्द्र का संचालन गुणमति व स्थिरमती नामक विद्वान करते थे।
वल्लभी में धरसेन के समय मैत्रक वंश का शासन था।
अन्य बौद्ध शिक्षा केन्द्र -
कश्यप बुद्ध संघाराम -
फाह्यान ने इस शिक्षा केन्द्र का उल्लेख किया है।
यह 5 मंजिल का था। इसकी प्रत्येक मंजिल अलग अलग पशुओं के आकार की थी।
पहली मंजिल -
हाथी के आकार की।
500 कक्ष।
दुसरी मंजिल -
सिंह के आकार की।
400 कक्ष।
तीसरी मंजिल -
घोड़े के आकार की।
300 कक्ष।
चौथी मंजिल -
बैल के आकार की।
200 कक्ष।
पांचवीं मंजिल -
कबूतर के आकार की।
श्रावस्ती का शिक्षा केन्द्र -
महात्मा बुद्ध ने अपने सबसे ज्यादा उपदेश श्रावस्ती में दिए थे।
श्रावस्ती कौशल महाजनपद की राजधानी थी।
यह बुद्ध के समय ही शिक्षा केन्द्र बन चुका था।
श्रावस्ती के श्रेष्ठी अनाथपिंडक ( सुदत्त ) ने 11 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं खर्च करके जेत नामक राजकुमार से जेतवन नामक जगह खरीदी थी और बुद्ध को दे दी।
श्रावस्ती में बुद्ध के लिए विशाखा ने पूर्वाराम विहार भी बनवाया था।
विहार - बौद्ध शिक्षा के केन्द्र।
आम्रपाली ने बुद्ध के लिए आम्रवन बनवाया था।
कश्मीर का बौद्ध विहार
जालंधर का बौद्ध विहार
हिन्दू शिक्षा के केन्द्र
रामायण व महाभारत में वर्णित शिक्षा केन्द्र -
हिमालय पर्वत पर व्यास आश्रम।
मालिनी नदी के तट पर कण्व का आश्रम।
प्रयाग के संगम पर भारद्वाज का आश्रम।
महेन्द्र पर्वत पर परशुराम का आश्रम।
नेमिषारण्य में शौनक का आश्रम।
दंडकारण्य में अगस्त्य ऋषि का आश्रम।
चित्रकूट में वाल्मीकि का आश्रम।
सान्दीपनि का आश्रम।
तक्षशिला -
गान्धार महाजनपद की राजधानी।
वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर व रावलपिंडी के क्षेत्र में विस्तृत।
तक्षशिला 7वी शताब्दी ईसा पूर्व में ही शिक्षा केन्द्र बन चुका था।
रामायण के अनुसार , राम के भाई भरत ने इस जगह की स्थापना की थी और यहाँ का प्रशासन तक्ष को सौंपा था।
कौटिल्य तक्षशिला में ही आचार्य थे।
मगध के हर्यंक वंशी राजा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने भी तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त की थी।
चन्द्रगुप्त मौर्य , पतंजलि , पाणिनी ( अष्टाध्यायी के लेखक ) ने भी तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त की थी।
चीनी यात्री फाह्यान ने तक्षशिला का उल्लेख नहीं किया है। इस आधार पर कहा जाता है कि गुप्तकाल में यह शिक्षा केन्द्र नष्ट हो चुका था।
प्राचीन भारत में जितने भी वंश हुए , उन सभी वंशों की राजधानियाँ भी शिक्षा केन्द्रों के रूप में चर्चित थी।
गुर्जर प्रतिहार वंश के समय जालौर , अवन्ति या उज्जैन , कन्नौज शिक्षा केन्द्र रहे।
चालुक्यों के समय पाटन या अन्हिलवाड़ा ( गुजरात ) शिक्षा केन्द्र रहा।
मालवा के परमारों के समय धारानगरी ( धार , मध्यप्रदेश ) शिक्षा केन्द्र रहा।
चोल वंश के समय तंजौर शिक्षा केन्द्र रहा।
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