हिन्दी साहित्य का आदिकाल

$$$ आदिकाल $$$

®हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है।
®हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है।
इस काल को ग्रियर्सन ने 'चारण काल',
मिश्र बंधु ने 'प्रारंभिक काल',
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'बीज वपन काल',
शुक्ल ने 'आदिकाल: वीर गाथाकाल',
राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्ध- सामंत काल',
राम कुमार वर्मा ने 'संधिकाल' व 'चारण काल',
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' की संज्ञा दी है।
®आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है- धार्मिकता,
वीरगाथात्मकता
व श्रृंगारिकता।
#प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता , कीर्तिपताका इत्यादि।
®मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली इत्यादि।
®विद्यापति ने 'कीर्तिलता' व 'कीर्तिपताका' की रचना अवहट्ट में और 'पदावली' की रचना मैथली में की।
®आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों की। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई। जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया।
®'पृथ्वी राज रासो' कथानक रूढ़ियों का कोश है। [(कथानक रूढ़ि (Motiff)- एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी कथा जुड़ी हो)]
®अपभ्रंश में 15 मात्राओं का एक 'चउपई' छंद मिलता है। हिन्दी ने चउपई में एक मात्रा बढ़ाकर 'चौपाई' के रूप में अपनाया अर्थात चौपाई 16 मात्राओं का छंद है।
®आदिकाल में 'आल्हा' छंद (31 मात्रा) बहुत प्रचलित था। यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था।
®दोहा, रासा, तोमर, नाराच, पद्धति, पज्झटिका, अरिल्ल आदि छंदों का प्रयोग आदिकाल में मिलता है।
®चौपाई के साथ दोहा रखने की पद्धति 'कडवक' कहलाती है। कडवक का प्रयोग आगे चलकर भक्ति काल में जायसी और तुलसी ने किया।
®अमीर खुसरो को 'हिन्द-इस्लामी समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि' कहा जाता है।
®आदिकालीन साहित्य के तीन सर्वप्रमुख रूप है- सिद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य एवं रासो साहित्य।
सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को 'सिद्ध-साहित्य' कहा जाता है। यह साहित्य बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का प्रचार करने हेतु रचा गया।
®सिद्धों की संख्या 84 मानी जाती है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें 'सिद्ध' कहा गया। 84 सिद्धों में सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख हैं। सरहपा प्रथम सिद्ध है। इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।
®सिद्ध कवियों की रचनाएँ दो रूपों में मिलती है 'दोहा कोष' और 'चर्यापद' । सिद्धाचार्यों द्वारा रचित दोहों का संग्रह 'दोहा कोष' के नाम से तथा उनके द्वारा रचित पद 'चर्या पद' के नाम से प्रसिद्ध है।
®सिद्ध-साहित्य की भाषा को अपभ्रंश एवं हिन्दी के संधि काल की भाषा मानी जाती है इसलिए इसे 'संधा' या 'संध्या' भाषा का नाम दिया जाता है।
®10 वीं सदी के अंत में शैव धर्म एक नये रूप में आरंभ हुआ जिसे 'योगिनी कौल मार्ग', 'नाथ पंथ' या 'हठयोग' कहा गया। इसका उदय बौद्ध-सिद्धों की वाममार्गी भोग-प्रधान योगधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
®अनुश्रुति के अनुसार 9 नाथ हैं- आदि नाथ (शिव), जलंधर नाथ, मछंदर नाथ, गोरखनाथ, गैनी नाथ, निवृति नाथ आदि। लेकिन नाथ-साहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ ही थे।
®बौद्ध-सिद्धों की वाणी में पूर्वीपन का पुट है तो शैव-नाथों की वाणी में पश्चिमीपन का।
®'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
@ रासो-काव्य को मुख्यतः 3 वर्गों में बाँटा जाता है-
(1) वीर गाथात्मक रासो काव्य : पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, विजयपाल रासो।
(2) शृंगारपरक रासो काव्य : बीसल देव रासो, सन्देश रासक, मुंज रासो।
(3) धार्मिक व उपदेशमूलक रासो काव्य : उपदेश रसायन रास, चन्दनबाला रस, स्थूलिभद्र रास, भरतेश्वर बाहुबलि रास, रेवन्तगिरि रास।

®पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई) : रासो काव्य परंपरा का प्रतिनिधि व सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ, आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ, काव्य-रूप-प्रबंध, रस-वीर व श्रृंगार, अलंकार- अनुप्रास व यमक (चंदबरदाई के प्रिय), छंद- विविध छंद (लगभग 68), गुण-ओज व माधुर्य, भाषा-राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा, शैली-पिंगल।
पृथ्वीराज रासो में चौहान शासक पृथ्वीराज के अनेक युद्धों और विवाहों का सजीव चित्रण हुआ है।
पृथ्वीराज रासो एक अर्द्धप्रामाणिक रचना है।
®परमाल रासो (जगनिक) : मूल रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे 'आल्हा खंड' कहा जाता है। इसका छंद आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
®संदेश रासक (अब्दुल रहमान) : एक विरह काव्य है।
रासो काव्य की सामान्य विशेषताएँ :
(1) ऐतिहासिकता व कल्पना का सम्मिश्रण
(2) प्रशस्ति काव्य
(3) युद्ध व प्रेम का वर्णन
(4) वैविध्यपूर्ण भाषा
(5) डिंगल-पिंगल शैली का प्रयोग
(6) छंदों का बहुमुखी प्रयोग
®चंदबरदाई दिल्ली के चौहान शासक पृथ्वी राज-III चौहान के सामंत व राजकवि थे।
®अमीर खुसरो का मूल नाम अबुल हसन था। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खल्जी ने उनकी कविता से खुश होकर उन्हें 'अमीर' का ख़िताब दिया और 'खुसरो' उनका तखल्लुस (उपनाम) था। इस प्रकार वे बन गए-अमीर खुसरो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत एवं हिन्दी के विद्वान थे। उन्होंने फारसी में ऐतिहासिक-साहित्यिक पुस्तकें लिखीं, व्रजभाषा में गीतों-कव्वालियों की रचना की और खड़ी बोली में पहेलियाँ-मुकरियाँ बुझाई। संगीत के क्षेत्र में उन्हें कव्वाली, तराना गायन शैली एवं सितार वाद्य यंत्र का जन्मदाता माना जाता है।
®विद्यापति बिहार के दरभंगा जिले के बिसफी गाँव रहनेवाले थे। उन्हें मिथिला के महाराजा कीर्ति सिंह और शिव सिंह का संरक्षण प्राप्त था।
जिस रचना के कारण विद्यापति 'मैथिल कोकिल' कहलाए वह उनकी मैथिली में रचित 'पदावली' है। यह मुक्तक काव्य है और इसमें पदों का संकलन है। पूरी पदावली भक्ति व श्रृंगार की धूपछांही है।

#प्रसिद्ध पंक्तियां:-

@बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार/बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार -जगनिक
@भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु/लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु (अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं (सहेलियों) के सम्मुख लज्जित होती।) -हेमचंद्र
@बालचंद्र विज्जवि भाषा/दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा (जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते) -विद्यापति
@षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया (मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है) -चंदरबरदाई
@'मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था' (संस्कृत साहित्य के संबंध में) -अमीर खुसरो
@पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ/देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ। [पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध (ब्रह्म) को नहीं जानते।] -सरहपा
@जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे (जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है) -गोरखनाथ
@गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा, वहाँ अमृत का बासा/सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा -गोरखनाथ
@काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे (गीत) -अमीर खुसरो
@बड़ी कठिन है डगर पनघट की (कव्वाली)-अमीर खुसरो
@छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके (पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली) -अमीर खुसरो
@एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा/चारो ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे (पहेली) -अमीर खुसरो
@नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है/फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन, ना सखि, चंदा (मुकरी/कहमुकरनी) -अमीर खुसरो
@खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय। ला पानी पिला।
(ढकोसला) -अमीर खुसरो
@जेहाल मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ;/के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय छतियाँ- प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह, नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता, मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते (फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -अमीर खुसरो
@गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस/चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस (अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर) -अमीर खुसरो
[नोट : सूफी मत में आराध्य (भगवान, गुरु) को स्त्री तथा आराधक (भक्त, शिष्य) को पुरुष के तीर पर देखने की रचायत है।]

@खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वाकी धार।
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। -अमीर खुसरो
@खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय।
वेद कुरआन पोथी पढ़े, बिना प्रेम का होय।। -अमीर खुसरो
@खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग।। -अमीर खुसरो
@तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
(अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।) -अमीर खुसरो
@''मैं हिन्दुस्तान की तूती ('तूती-ए-हिन्दुस्तान') हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।'' -अमीर खुसरो
@न लफ्जे हिंदवीस्त अज फारसी कम
(अर्थात हिंदवी बोल फारसी से कम नहीं।) -अमीर खुसरो
@आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि निज बाहू/कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहू- नायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है ('पदावली' से) -विद्यापति
@'आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों को 'गीत गोविन्द' (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती है वैसे ही 'पदावली' (विद्यापति) के पदों में।' -रामचन्द्र शुक्ल
@प्राइव मुणि है वि भंतडी ते मणिअडा गणंति/अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति।- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते है। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
@पिय-संगमि कउ निददडी पिअहो परोक्खहो केम/मइँ विन्निवि विन्नासिया निदद न एम्ब न-तेम्ब-प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों, न त्यों। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
@जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु/तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु।- जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
@माधव हम परिनाम निरासा -विद्यापति
@कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने -विद्यापति
@जाहि मन पवन न संचरई
रवि ससि नहीं पवेस -सरहपा
@अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।। -गोरखनाथ
@पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज -चंदबरदाई
@मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय -चंदरबरदाई
#आदिकालीन रचना एवं रचनाकार:-
#रचनाकार--- #रचना
स्वयंभू - पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ (अरिष्टनेमि चरित)
सरहपा -दोहाकोष
शबरपा -चर्या पद
कण्हपा -कण्हपाद गीतिका, दोहा कोश
गोरखनाथ -(नाथ सबदी, पद, प्राण संकली, सिष्या दासन पथ के प्रवर्तक)
चंदरबरदाई - पृथ्वीराज रासो (शुक्ल के अनुसार-हिन्दी का प्रथम महाकाव्य)
शार्ङ्गधर- हम्मीर रासो
दलपति विजय- खुमाण रासो
जगनिक - परमाल रासो
नल्ह सिंह भाट- विजयपाल रासो
नरपति नाल्ह -बीसल देव रासो
अब्दुर रहमान - संदेश रासक
अज्ञात - मुंज रासो
देवसेन -श्रावकाचार
जिन दत्त सूरी -उपदेश रसायन रास
आसगु -चन्दनबाला रस
जिनधर्म सूरी -स्थूलिभद्र रास
शलिभद्र सूरी -भारतेश्वर बाहुबली रास
विजय सेन - रेवन्तगिरि रास
सुमतिगणि -नेमिनाथ रास
हेमचंद्र - सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन
विद्यापति -पदावली (मैथली में) कीर्तिलता व कीर्तिपताका (अवहट्ट में) लिखनावली (संस्कृत में)
कल्लोल कवि - ढोला मारू रा दूहा
मधुकर *जयमयंक जस चंद्रिका
भट्ट केदार - जयचंद प्रकाश

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