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RPSC FIRST GRADE मौर्य साम्राज्य


 मौर्य साम्राज्य (321 ई.पू.–185 ई.पू.)

मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत का सबसे पहला और सबसे बड़ा राजनीतिक साम्राज्य था। इसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी और यह साम्राज्य मौर्य वंश के तीन प्रमुख शासकों—चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, और अशोक महान—के शासनकाल में अपनी चरम सीमा पर पहुँचा।

1. मौर्य साम्राज्य की स्थापना

1. चंद्रगुप्त मौर्य (321 ई.पू.–297 ई.पू.):

संस्थापक: चंद्रगुप्त मौर्य ने नंद वंश के आखिरी शासक धनानंद को हराकर मगध में मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।

राजनीतिक सहयोग: चाणक्य (कौटिल्य/विष्णुगुप्त) उनके प्रमुख सलाहकार और रणनीतिकार थे।

सैन्य अभियान:

सिकंदर के उत्तराधिकारी सेल्यूकस निकेटर को हराकर काबुल, गंधार और बलूचिस्तान पर अधिकार किया।

सेल्यूकस से संधि के तहत चंद्रगुप्त को उनकी बेटी से विवाह और 500 हाथी मिले।

शासन और प्रशासन:

शक्तिशाली केंद्रीकृत शासन।

चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें राजनीति, अर्थव्यवस्था, और प्रशासन की विस्तृत जानकारी है।

अंतिम समय: चंद्रगुप्त ने जैन धर्म अपनाया और श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में संन्यास लिया।

2. बिंदुसार (297 ई.पू.–273 ई.पू.)

1. उत्तराधिकार:

चंद्रगुप्त के बाद उनका पुत्र बिंदुसार शासक बना।

उन्हें "अमित्रघात" (शत्रु-विनाशक) कहा जाता है।

2. सैन्य अभियान:

बिंदुसार ने दक्षिण भारत के कई राज्यों को मौर्य साम्राज्य में शामिल किया।

चोल, पांड्य और चेर साम्राज्यों को छोड़कर अधिकांश दक्षिण भारत को मौर्य साम्राज्य में शामिल किया गया।

3. विदेशी संबंध:

यूनानी राजाओं के साथ अच्छे संबंध बनाए।

यूनानी राजदूत डायमेकस उनके दरबार में आया।

4. मृत्यु: बिंदुसार की मृत्यु के बाद अशोक ने सत्ता संभाली।

3. अशोक महान (273 ई.पू.–232 ई.पू.)

अशोक मौर्य वंश का सबसे महान शासक था और वह अपने धर्म, नीति और धम्म प्रचार के लिए प्रसिद्ध है।

1. प्रारंभिक शासनकाल:

प्रारंभ में अशोक एक महत्वाकांक्षी और क्रूर शासक था।

उसने कुरीतियों और विद्रोहों का दमन किया।

2. कलिंग युद्ध (261 ई.पू.):

अशोक ने कलिंग (आधुनिक ओडिशा) पर आक्रमण किया।

युद्ध में 1 लाख लोग मारे गए और 1.5 लाख लोग कैद हुए।

इस नरसंहार से अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने युद्ध का मार्ग छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया।

3. धम्म नीति:

अशोक ने अपनी धम्म नीति के तहत समाज में नैतिकता, अहिंसा, और धर्म का प्रचार किया।

उसने स्तूपों, विहारों और अशोक स्तंभों का निर्माण करवाया।

अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए मिशनरियों को श्रीलंका, दक्षिण-पूर्व एशिया, और पश्चिमी देशों में भेजा।

4. शासन और प्रशासन:

प्रांतों में राजुक (राज्यपाल) नियुक्त किए।

सामाजिक सुधार: जाति भेदभाव और पशु बलि पर रोक लगाई।

5. अशोक के अभिलेख:

अशोक ने अपने आदेशों और धम्म की शिक्षाओं को शिलालेखों, स्तंभ लेखों और गुफा लेखों पर खुदवाया।

ये लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए।

प्रमुख स्थान: सोपारा, गिरनार, कंधार।

4. मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था

मौर्य साम्राज्य का प्रशासन केंद्रीकृत और सुव्यवस्थित था।

1. राजा:

राजा सर्वोच्च अधिकारी था।

धर्म, नीति, और प्रशासन में राजा की मुख्य भूमिका थी।

2. मंत्रिपरिषद:

मंत्रियों का समूह राजा को सलाह देता था।

3. प्रांतीय प्रशासन:

साम्राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया।

प्रमुख प्रांत: मगध, अवंती, तक्षशिला।

4. सेना:

विशाल सेना जिसमें पैदल सैनिक, घुड़सवार, हाथी और रथ शामिल थे।

5. राजस्व व्यवस्था:

भूमि कर प्रमुख था।

व्यापार, उद्योग और कृषि से भी कर वसूला जाता था।

6. गुप्तचर प्रणाली:

प्रशासन को प्रभावी बनाने के लिए एक मजबूत गुप्तचर तंत्र था।

5. मौर्य साम्राज्य की कला और संस्कृति

1. अशोक स्तंभ:

अशोक ने अपने आदेशों को स्तंभों पर खुदवाया।

सारनाथ का सिंह स्तंभ भारत का राष्ट्रीय प्रतीक है।

2. बौद्ध वास्तुकला:

स्तूपों का निर्माण:

प्रमुख स्तूप: साँची स्तूप, बोधगया।

विहारों का निर्माण।

3. शिल्प और मूर्तिकला:

पत्थर की मूर्तियों और नक्काशी में उत्कृष्टता।

6. मौर्य साम्राज्य का पतन

1. कारण:

अशोक की मृत्यु के बाद कमजोर उत्तराधिकारी।

विशाल साम्राज्य का कुशल प्रबंधन न होना।

ब्राह्मण वर्ग का विरोध।

आर्थिक कठिनाइयाँ।

2. अंतिम शासक:

अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ को उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की।

7. मौर्य साम्राज्य का महत्व

1. प्रथम केंद्रीकृत साम्राज्य।

2. राजनीतिक और प्रशासनिक संगठन का उदाहरण।

3. अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार विश्व स्तर पर।

4. भारतीय कला और संस्कृति का उत्कर्ष।

निष्कर्ष

मौर्य साम्राज्य ने भारत को एक संगठित राजनीतिक संरचना और सांस्कृतिक विरासत प्रदान की। अशोक की धम्म नीति और बौद्ध धर्म के प्रसार ने इसे न केवल भारत बल्कि पूरे एशिया में अमर बना दिया।


RPSC FIRST GRADE गुप्त काल

 गुप्त काल (लगभग 320 से 550 ईस्वी) भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है। इस काल में साहित्य, कला, विज्ञान, धर्म और शासन के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। इसे "क्लासिकल युग" भी कहा जाता है। आइए गुप्त काल को विस्तार से समझते हैं:


1. गुप्त साम्राज्य का उदय

गुप्त साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त प्रथम (320-335 ईस्वी) ने की।

उसकी शादी लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से हुई, जिसने उनके साम्राज्य को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सुदृढ़ किया।

समुद्रगुप्त (335-375 ईस्वी) को गुप्त काल का नेपोलियन कहा जाता है। उनकी विजय यात्राओं ने साम्राज्य को अखिल भारतीय स्वरूप दिया।

चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य): इनके शासनकाल में कला, साहित्य और संस्कृति का चरम विकास हुआ।

2. प्रशासन और शासन व्यवस्था

राजतंत्र: राजा सर्वोच्च शासक था।

केंद्रीय प्रशासन: साम्राज्य को प्रांतों (भुक्ति) में विभाजित किया गया।

सामंत व्यवस्था: स्थानीय स्तर पर सामंतों को शासन का जिम्मा सौंपा गया।

कर प्रणाली: कृषि से कर, व्यापार कर, खनिज कर प्रमुख थे।

3. सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था

सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा मिला। ब्राह्मणों का विशेष सम्मान था।

धर्म: हिंदू धर्म का पुनरुत्थान। शिव और विष्णु की पूजा का प्रचलन बढ़ा।

बौद्ध धर्म और जैन धर्म: इनका भी पालन किया गया।

धर्मशास्त्र: इस काल में अनेक धर्मशास्त्र लिखे गए।

नारी की स्थिति: सामान्यतः महिलाएँ घर तक सीमित थीं, लेकिन राजकुमारियों को शिक्षा दी जाती थी।

4. साहित्य और शिक्षा

संस्कृत भाषा का उत्थान: गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है।

प्रमुख लेखक और उनकी कृतियाँ:

कालिदास: अभिज्ञान शाकुंतलम्, मेघदूतम्, रघुवंशम्।

विशाखदत्त: मुद्राराक्षस।

शूद्रक: मृच्छकटिकम्।

अमर सिंह: अमरकोश।

नालंदा विश्वविद्यालय: यह शिक्षा का मुख्य केंद्र था।

5. कला और वास्तुकला

मंदिर निर्माण:

प्रारंभिक मंदिर शैली का विकास।

देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) में दशावतार मंदिर।

मूर्ति कला:

बौद्ध, हिंदू और जैन मूर्तियों का निर्माण।

सांची और सारनाथ में उत्कृष्ट मूर्तियाँ।

चित्रकला:

अजंता की गुफाओं में भित्ति चित्र।

सिक्के:

स्वर्ण मुद्राएँ चलाई गईं, जिन पर शासकों और देवताओं के चित्र थे।

6. विज्ञान और गणित

आर्यभट्ट:

उन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ लिखा।

दशमलव पद्धति और शून्य का उपयोग।

ग्रहण की वैज्ञानिक व्याख्या।

वराहमिहिर:

पंचसिद्धांतिका ग्रंथ।

खगोलशास्त्र और ज्योतिष पर कार्य।

चिकित्सा:

धवला और सुश्रुत जैसे चिकित्सा ग्रंथ।

7. गुप्त साम्राज्य का पतन

हूणों के आक्रमण: 5वीं शताब्दी के मध्य में हूणों के हमले।

आंतरिक संघर्ष: सामंतवाद के कारण प्रशासन कमजोर हो गया।

साम्राज्य का विभाजन: गुप्त साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया।

गुप्त काल की विशेषताएँ

1. साहित्य, कला और विज्ञान का स्वर्ण युग।

2. हिंदू धर्म का पुनरुत्थान।

3. साम्राज्य के विस्तार में समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय की भूमिका।

4. स्थापत्य और मूर्तिकला में उत्कृष्टता।

निष्कर्ष

गुप्त काल भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक इतिहास का सबसे गौरवशाली अध्याय है। यह भारतीय सभ्यता के उस दौर को दर्शाता है, जब कला, विज्ञान और धर्म का अद्भुत संगम हुआ। RPSC परीक्षा के दृष्टिकोण से, गुप्त काल के साहित्य, कला, विज्ञान और प्रशासन को विशेष रूप से पढ़ना चाहिए।


RPSC FIRST GRADE सिन्धु घाटी सभ्यता

 सिन्धु घाटी सभ्यता (2500 ई.पू.–1700 ई.पू.)



सिन्धु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है, विश्व की सबसे प्राचीन और उन्नत शहरी सभ्यताओं में से एक है। इसका विस्तार आज के पाकिस्तान, उत्तर-पश्चिम भारत और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों तक था। यह सभ्यता सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के किनारे विकसित हुई।


1. खोज और महत्व

1. खोज:

1921 में हड़प्पा (पाकिस्तान) की खोज दयाराम साहनी ने की।

1922 में मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) की खोज राखालदास बनर्जी ने की।

यह सभ्यता ताम्रपाषाण युग (कॉपर एज) का प्रतिनिधित्व करती है।

2. भौगोलिक विस्तार:

उत्तर में जम्मू-कश्मीर के मांड (भारत)

दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र, भारत)।

पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश, भारत)।

पश्चिम में सोत्काकोह (बलूचिस्तान, पाकिस्तान)

3. समयकाल:

2500 ई.पू. से 1700 ई.पू. (लगभग 800 वर्ष)।

4. महत्व

विश्व की पहली सुव्यवस्थित शहरी सभ्यता।

नगर योजना, वास्तुकला और जल प्रबंधन में अद्वितीय।

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2. नगर और उनकी विशेषताएँ

सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर अत्यधिक संगठित और सुव्यवस्थित थे।

1. नगर योजना:

नगर को दो भागों में विभाजित किया गया था

ऊपरी भाग (गढ़): प्रशासनिक और धार्मिक कार्यों के लिए।

निचला भाग: सामान्य निवासियों के लिए।

ग्रिड पैटर्न में सड़कों की व्यवस्था।

सड़कों का आकार: मुख्य सड़कें 10 मीटर चौड़ी।

2. नालियों और जल निकासी प्रणाली:

प्रत्येक घर से नाली जुड़ी हुई।

ढकी हुई नालियाँ, जिनकी सफाई की व्यवस्था थी।

3. इमारतें:

पक्की ईंटों का उपयोग।

महत्वपूर्ण इमारतें:

ग्रेट बाथ (मोहनजोदड़ो): स्नान के लिए प्रयोग।

अनाज भंडार (हड़प्पा): अनाज संग्रह के लिए।

सामान्य घर: 1-2 मंजिला।

4. प्रमुख स्थल और उनकी विशेषताएँ

हड़प्पा: अनाज भंडार और पक्की सड़कें।

मोहनजोदड़ो: ग्रेट बाथ और सुव्यवस्थित जल प्रबंधन

कालीबंगा: हल चलाने के प्रमाण।

लोथल: प्राचीन बंदरगाह और जलनालियां।

धौलावीरा: जल प्रबंधन प्रणाली।

राखीगढ़ी: यह स्थल अब तक खोजा गया सबसे बड़ा शहर है।

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3. सामाजिक व्यवस्था

1. सामाजिक संरचना:

समाज व्यवसाय आधारित था।

वर्ग विभाजन स्पष्ट नहीं था।

2. पहनावा:

सूती और ऊनी वस्त्र।

महिलाएं गहने (चूड़ियाँ, हार, कंगन) पहनती थीं।

3. भोजन:

मुख्य भोजन: गेहूं, जौ, चावल, मांस, मछली, दूध।

फल और सब्जियों का उपयोग।

4. खेल:

पासा, मिट्टी के खिलौने।

मोहनजोदड़ो में शतरंज का प्रारंभिक रूप।

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4. आर्थिक व्यवस्था

1. कृषि:

गेहूं, जौ, सरसों, कपास, चावल (लोथल में)।

सिंचाई के लिए नहरों और जलाशयों का प्रयोग।

हल चलाने के प्रमाण (कालीबंगा)।

2. शिल्प और उद्योग:

बर्तन बनाने, वस्त्र उत्पादन, गहने और मोहरें बनाना।

तांबे, कांसे और पत्थर के औजार।

3. व्यापार

आंतरिक और बाहरी व्यापार।

मेसोपोटामिया (इराक) के साथ व्यापार।

मुद्रा के रूप में बार्टर सिस्टम (वस्तु विनिमय)।

लोथल में बंदरगाह का निर्माण।

4. मोहरें (Seals):

मुख्यतः पशु आकृतियाँ: बैल, गैंडा, हाथी।

व्यापार में प्रयोग और धार्मिक महत्व।

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5. धार्मिक विश्वास

1. प्रकृति पूजा:

मातृ देवी की पूजा।

पीपल वृक्ष और पशुओं का सम्मान।

2. पशुपति महादेव:

शिव के आरंभिक रूप के प्रमाण।

3. यज्ञ का प्रमाण नहीं:

कर्मकांड आधारित धर्म नहीं था।

4. मृत्यु संस्कार:

शवों को जलाना या दफनाना।

मोहनजोदड़ो में समाधि के प्रमाण।

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6. कला और संस्कृति

1. मूर्ति और शिल्प:

नर्तकी की कांस्य मूर्ति (मोहनजोदड़ो)।

बैल की पत्थर की मूर्ति।

2. चित्रित बर्तन:

लाल और काले रंग के चित्रित बर्तन।

3. संगीत और नृत्य:

नृत्य और संगीत के प्रतीक।

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7. पतन के कारण

सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के अनेक कारण हो सकते हैं:

1. जलवायु परिवर्तन:

नदी मार्ग बदलने और बाढ़।

2. आर्यों का आगमन:

बाहरी आक्रमण।

3. आंतरिक समस्याएँ:

आर्थिक और सामाजिक गिरावट।

4. संपर्कों का टूटना:

व्यापार मार्गों में बाधा।

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8. सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएँ

1. प्रथम शहरीकरण।

2. संगठित जल निकासी प्रणाली।

3. उन्नत वास्तुकला और नगर योजना।

4. धार्मिक और सामाजिक समरसता।

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निष्कर्ष

सिन्धु घाटी सभ्यता ने न केवल भारतीय इतिहास की नींव रखी, बल्कि इसे विश्व इतिहास में भी एक अद्वितीय स्थान प्रदान किया। इसकी शहरी योजना, सामाजिक संगठन और सांस्कृतिक विकास आधुनिक समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत है।


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मौर्य काल साहित्य , कला व विज्ञान का विकास

मौर्य काल

साहित्य , कला व विज्ञान का विकास


समय -

322 से 184 BC

चंद्रगुप्त मौर्य - चंद्रगुप्त ने 24 वर्ष तक शासन किया।

समय - 322 से 298 BC


बिन्दुसार - 

समय - 298 से 273 BC


अशोक - 

समय - 273 से 232 BC


मौर्यों का मूल स्थान - नेपाल का पिप्पलिवन नामक स्थान।

राज्य प्रारंभ क्षेत्र - मगध।

मगध - वर्तमान बिहार के पटना , गया , शाहबाद का सम्मिलित क्षेत्र।


मौर्यों का वर्ण -

जैन व बौद्ध ग्रंथ - क्षत्रिय।

ब्राह्मण ग्रन्थ - शुद्र।


मौर्य वंश के शासकों का धर्म -

मौर्य वंश के शासक अलग अलग धर्मों के अनुयायी रहे हैं।

चन्द्रगुप्त - जैन धर्म

अशोक - बौद्ध धर्म

सम्प्रति - जैन धर्म


184 BC में ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ को मारकर शुंग वंश की स्थापना की।


 मौर्यकालीन साहित्य


मौर्यकाल के बारे में जानकारी ब्राह्मण , जैन , बुद्ध व विदेशी साहित्य से मिलती है।


मौर्यकाल में लिखे गए प्रमुख ग्रंथ - अर्थशास्त्र , कल्पसूत्र व इण्डिका।


ब्राह्मण साहित्य - 

विष्णु पुराण - 

पुराण संख्या में 18 है। 

पुराणों के 5 लक्षण बताए गए हैं।

पुराण कब से लिखना प्रारंभ हुए , इसके बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है।

पुराण सबसे ज्यादा गुप्त काल में लिखे गए।

पुराणों का अन्तिम रूप से संकलन गुप्त काल में माना जाता है।

सबसे ज्यादा पुराण गुप्तकाल में लिखे गए।

पुराणों को इतिहास के प्रामाणिक साधन के रूप में नहीं माना जाता है , क्योंकि पुराण भविष्य में होने वाली घटनाओं का भी उल्लेख करते हैं।


पतंजलि का महाभाष्य -

उत्तर मौर्य काल में शुंग वंश के समय रचित।

पतंजलि - पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित।


विशाखदत्त का मुद्राराक्षस - 

गुप्तकाल के लेखक।

देवीचंद्रगुप्तम के रचयिता - गुप्त काल से सम्बंधित रचना। अनुपलब्ध।

मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य के लिए वृषल ( कुलहीन या निम्न कुल में उत्पन्न ) शब्द का प्रयोग हुआ है।


कौटिल्य का अर्थशास्त्र - 

अर्थशास्त्र की पांडुलिपि खोजने वाला व्यक्ति 1904 में शाम शास्त्री था।

यह धार्मिक ग्रंथ न होकर धर्मेतर साहित्य है।

राजनीति से सम्बंधित ग्रन्थ।

15 अधिकरण

180 प्रकरण

6000 श्लोक

कौटिल्य स्वयं को द्विजवर्षभ ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) कहता है।


मौर्यों का वर्ण -

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में परोक्ष रूप से मौर्यों को क्षत्रिय बताया है।

कौटिल्य का कथन - राजा भले ही कमजोर हो , लेकिन क्षत्रिय कुल का होना चाहिये।


अर्थशास्त्र की तुलना निम्न ग्रंथों से की जाती है - 

 पॉलिटिक्स - अरस्तू।

अरस्तू यूनान के दार्शनिक थे।

समय - ईसा पूर्व की शताब्दी।

गुरु - प्लेटो

शिष्य - सिकन्दर महान ( अलेक्ज़ेंडर )


द प्रिंस - मेकियावली। 

मेकियावली 12वी - 13वी सदी में इटली में हुआ था।


अर्थशास्त्र नाम की सार्थकता -

चार पुरुषार्थों में से अर्थ में न केवल धन को , अपितु सुख संपत्ति और ऐश्वर्य प्रदान करने वाले सभी साधनों को शामिल किया जाता है।

राजनीति भी अर्थ पुरुषार्थ के अंतर्गत शामिल है। इसीलिए इस ग्रन्थ का अर्थशास्त्र नाम युक्तिसंगत है।


राज्य का सप्तांग सिद्धांत -

अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण - मंडल योनी में राज्य के सप्तांग सिद्धांत का उल्लेख मिलता है।

सप्तांग सिद्धांत - राज्य का निर्माण 7 तत्वों से मिलकर होता है।

7 तत्व - 

स्वामी ( राजा )

अमात्य ( मंत्री )

राष्ट्र

दुर्ग

बल

कोष

मित्र


दास प्रथा - 

अर्थशास्त्र में दास प्रथा का उल्लेख मिलता है। दासों के कई प्रकार मिलते हैं - 

ध्वजाहत दास - युद्ध में बन्दी बनाए गए लोगों को दास बनाना।

अहितक दास - अस्थायी दास। कुछ समय के लिए बना हुआ दास।

लब्ध दास - दान में प्राप्त हुआ दास।

दायजात दास - दासी से उत्पन्न पुत्र दास।

क्रीतदास - क्रय किया गया दास।

दण्डप्रणीत दास - सजा के परिणामस्वरूप बनाया गया दास।

आत्मविक्रयी दास - जिसने स्वयं को बेच दिया हो।


विदेश नीति - 

अर्थशास्त्र में सबसे अधिक राजनीति की विदेश नीति का उल्लेख हुआ है।

विदेश नीति को दौत्यम कहा गया है।

अधिकरण 9 से 15 में विदेश नीति का उल्लेख हुआ है।


कौटिल्य पर विवाद -

अर्थशास्त्र को लेकर विवाद है कि यह मौर्यकाल की रचना है या नहीं , क्योंकि इस ग्रन्थ में किसी भी मौर्य शासक का नाम नहीं है , ना ही पाटलिपुत्र का उल्लेख है।

मेगस्थनीज व पतंजलि ने भी अपने ग्रन्थों में मौर्यकाल में कौटिल्य का उल्लेख नहीं किया है।


सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्र की वृहत्कथामन्जरी भी मौर्य काल की जानकारी देते है। 

लेकिन ये दोनों ग्रन्थ भी मौर्य काल में नहीं लिखे गए।


कल्हण की राजतरंगिणी -

कल्हण ब्राह्मण था।

कल्हण 12वी सदी का लेखक था।

मौर्यों के 1500 साल बाद हुआ था।

कश्मीर के लोहर वंश के राजा हर्ष व जयसिंह के समय कल्हण ने राजतरंगिणी ग्रन्थ लिखा।

इसमें लिखा है , " मौर्य शासक अशोक ने कश्मीर में शिव मंदिर बनवाया है। " लेकिन मौर्य काल में मंदिर निर्माण शुरू नहीं हुआ था।

अशोक द्वारा बनवाया गया शिव मंदिर भी अप्राप्त है।


जैन साहित्य - 

मौर्यकाल में अकाल पड़ने की जानकारी केवल जैन साहित्य से ही मिलती है।

जैन मंदिरों को ' स्थानक ' कहा जाता है।

सबसे ज्यादा जैन धर्म के लोग गुजरात में रहते हैं।

गुजरात में चालुक्य वंश के शासक अजयपाल ( 1172 से 1176 ) ने जैन धर्म के भिक्षुओं को मौत के घाट उतारने का आदेश जारी किया , तब ये लोग राजस्थान के दुर्लभ क्षेत्रों में चले गए थे।


भद्रबाहु का कल्पसूत्र - 

चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के प्रभाव से जैन धर्म का अनुयायी बन गया।

इस ग्रन्थ से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम समय में 12 वर्षीय भीषण अकाल पड़ा। चंद्रगुप्त अपने पुत्र बिन्दुसार को राज्य सौंपकर श्रवणबेलगोला ( हासन , कर्नाटक ) चला गया।

यह बात पुरातात्विक प्रमाणों से भी साबित होती है।

यहां पर आज भी चंद्रगुप्त के नाम के स्मारक है। यहाँ पर चंद्रगिरी गुफा में चन्द्रगुप्त ने तपस्या की थी।

यहाँ पर चंद्रवस्ती नामक मंदिर भी बना हुआ है।


हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व - यह भी मौर्यकाल में नहीं लिखा गया।

गुजरात के चालुक्य वंश के समय का लेखक।

मौर्य काल के 1400 - 1500 साल बाद का लेखक।

कुमारपाल चालुक्य हेमचन्द्र के प्रभाव से जैन धर्म में दीक्षित हुए थे।


बौद्ध ग्रन्थ -

दीपवंश व महावंश - 

ये सिंहली ग्रन्थ है , जो मौर्यकाल की जानकारी देते हैं।

अशोक के समय तृतीय बौद्ध संगीति के आयोजन की जानकारी।

अशोक ने भारत से बाहर बौद्ध धर्म के प्रचारकों को भेजा था।

पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए लंका भेजा था।


दिव्यावदान - 

दिव्यावदान में अशोक को क्षत्रिय बताया गया है।


मिलिन्दपन्हो - 

उत्तर मौर्यकाल का ग्रन्थ।

मिलिन्द का असली नाम - मिनांडर।

बैक्ट्रियन ग्रीक शासक मिनांडर व बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य हुए वार्तालाप का वर्णन।

मिनांडर - मोक्ष क्या होता है ?

नागसेन - समुद्र से गहरा। अर्थात जो पाता है , वही समझ सकता है।

नन्द शासक घनानंद को मारकर चंद्रगुप्त ने मौर्यवंश की स्थापना की थी।

घनानंद व चन्द्रगुप्त के मध्य युद्ध का वर्णन करने वाला एकमात्र ग्रन्थ।

अर्थशास्त्र - " पराजित राजा के साथ उदारता का व्यवहार करना चाहिए। "

अतः हम जैन धर्म के इस तथ्य पर विश्वास करते है कि चन्द्रगुप्त ने घनानंद को पराजित करके उसकी पुत्री के साथ उसे जाने दिया।


आर्यमंजुश्री मूलकल्प - 

सर्वाधिक लंबे समय के इतिहास की जानकारी देने वाला एकमात्र ग्रन्थ।


थेरीगाथा - 

बौद्ध धर्म का ग्रन्थ।

बौद्ध धर्म में गृहत्यागी पुरूष - थेर।

गृहत्यागी स्त्रियां - थेरी।

बौद्ध धर्म में भिक्षु - भिक्षुणी को थेर - थेरी कहा जाता है।

जैन धर्म में - श्रमण - श्रमणी।


विदेशी साहित्य - 

मेगस्थनीज की इण्डिका -

305 BC में चन्द्रगुप्त ने यूनानी सेल्यूकस को पराजित किया था।

बाद में दोनों के मध्य सन्धि हो गई।

सेल्यूकस ने मेगस्थनीज को अपना राजदूत बनाकर चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा।

मेगस्थनीज का भारत में समय - 304 BC से 299 BC

मेगस्थनीज ने जो देखा , वही लिखा।

इण्डिका उपलब्ध नहीं है।

यूनानी व रोमन लेखकों के विवरण में इण्डिका के अंश मिलते हैं।

इण्डिका के यूनानी व रोमन अंशों को संकलित करने वाला पहला व्यक्ति 1846 ईस्वी में स्वानबेग था।

इनका अंग्रेजी अनुवाद 1891 ईस्वी में मेक्रिण्डल ने किया था।

मेगस्थनीज यूनानी था। अतः हमारे देश की व्यवस्था को पूरी तरह समझ नहीं पाया। इस कारण उसने कुछ गलतियां कर दी।


अंगरक्षक -

मेगस्थनीज के अनुसार , चन्द्रगुप्त स्त्री अंगरक्षकों से घिरा रहता था।


जातियां - 

भारतीय समाज को 7 जातियों ( मेर ) में विभक्त करता है -

दार्शनिक

कृषक

शिकारी व पशुपालक

व्यापारी व शिल्पी

योद्धा

निरीक्षक

मन्त्री


दास प्रथा - 

मेगस्थनीज के अनुसार , भारत में दास प्रथा नहीं थी। यह गलती उससे इसलिए हुई क्योंकि भारत में दासों को परिवार के सदस्यों की तरह रखा जाता था , जबकि यूनान में दासों के साथ पशुवत व्यवहार होता था।


वर्ण व्यवस्था - 

मेगस्थनीज भारत में वर्ण व्यवस्था का भी उल्लेख नहीं करता है।


लेखन कला -

मेगस्थनीज के अनुसार , भारत के लोग लेखन कला से परिचित नहीं थे।


एरियन इण्डिका -

यूनानी लेखक एरियन ने भी इण्डिका नाम से ग्रन्थ लिखा था , जिसे एरियन इण्डिका कहा जाता है।


चीनी लेखकों के विवरण -

फाह्यान - 399 से 414 ईस्वी ( चंद्रगुप्त द्वितीय के समय )

ह्वेनसांग - 629 से 645 ( हर्षवर्धन के समय )

इत्सिंग - 671 ईस्वी।


फाह्यान के अनुसार चन्द्रगुप्त ने राजभवन ( राजप्रासाद ) बनवाया था , जिसको देखकर लगता है कि यह मनुष्यों द्वारा निर्मित न होकर देवताओं द्वारा निर्मित है।

स्पूनर ने इसी को आधार बनाकर खुदाई करवाई।


फाह्यान के अनुसार , अशोक ने लोगों को सजा देने के लिए पाटलिपुत्र में एक नर्क बनवाया था।

बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पहले अशोक अत्याचारी राजा था।

ह्वेनसांग के अनुसार , उसने अशोक द्वारा बनवाए गए नर्क की दीवारों को देखा था।


इत्सिंग के अनुसार , उसने अशोक की बौद्ध भिक्षु के रूप में मूर्ति देखी थी।

अशोक बौद्ध धर्म का भिक्षु नहीं था।


अन्य यूनानी व रोमन लेखकों का विवरण -

स्ट्रेबो , जस्टिन , डायोडोरस , एरियन , प्लूटार्क व प्लिनी जैसे लेखकों ने भी मौर्यकाल के बारे में लिखा है।

प्लूटार्क व प्लिनी रोमन लेखक है।

प्लिनी ने ' नेचुरल हिस्ट्री ' नामक पुस्तक लिखी।

विदेशी लेखकों स्ट्रेबो , जस्टिन , एरियन

ने चन्द्रगुप्त को सेन्ड्रोकोट्स व प्लूटार्क ने एंड्रोकोट्स कहा है।

सबसे पहले विलियम जोन्स ने इन नामों का तादात्म्य चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ बिठाया।

विलियम जोन्स ने ' रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ' की स्थापना की।


मौर्यकालीन कला 


पर्सी ब्रॉउन , हैवेल , विंसेंट स्मिथ , बर्जेस , कुमारस्वामी , फर्ग्यूसन व वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे इतिहासकारों ने भारतीय कला के क्षेत्र में कार्य किया था।


विंसेंट स्मिथ - " कला के क्षेत्र में पत्थरों का प्रयोग मौर्यकाल में अपनी पूर्णता की ओर पहुँच गया था। "


वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार , " अशोक को स्तम्भ बनाने की प्रेरणा ईरान से नहीं मिली। "


चन्द्रगुप्त मौर्य के समय के कला के स्मारक ज्यादा नहीं मिलते। इसका कारण यह बताया जाता है कि चन्द्रगुप्त के समय कला के क्षेत्र में लकड़ी का प्रयोग ज्यादा हुआ था।


फाह्यान के विवरण को आधार बनाकर स्पूनर ने पटना के समीप बुलन्दी बाग  व कुम्रहार जैसे स्थानों पर खुदाई करवाई , तो चन्द्रगुप्त के समय के राजभवन के अवशेष प्राप्त हुए।


रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख - संस्कृत का एकमात्र मौर्यकालीन साक्ष्य।

भारत का पहला शुद्ध संस्कृत का अभिलेख।

इसे स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख भी कहते है।

रुद्रदामन व स्कन्दगुप्त ने सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार करवाया था।

शक शासक रुद्रदामन प्रथम का समय 130 से 150 ईस्वी था।

जूनागढ़ या गिरनार लेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने उर्जयत पर्वत से बहने वाली सुवर्ण सिकता व पलासिनी नदियों के पानी को रोककर सुदर्शन झील का निर्माण वेश्य पुष्यगुप्त की सहायता से करवाया था।

अशोक ने सुदर्शन झील से नहरें यवनराज तुशास्फ की सहायता से निकलवायी।


दुर्ग निर्माण कला -

अर्थशास्त्र में दुर्ग निर्माण का उल्लेख मिलता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त के समय दुर्ग निर्माण कला अस्तित्व में थी।


यूनानी लेखकों ने पाटलिपुत्र को पालीब्रोथा कहा है।

पालीब्रोथा की नगर निर्माण योजना का उल्लेख मेगस्थनीज ने किया था। इससे पता चलता है कि चन्द्रगुप्त के समय नगर निर्माण कला भी थी।

बाद में स्ट्रेबो ने भी इसका उल्लेख किया था।

स्ट्रेबो ने इण्डिका को अविश्वसनीय ग्रन्थ बताया।


मौर्य काल मे कला का सर्वाधिक विकास अशोक के समय हुआ।

अशोक ने स्तूप , स्तम्भ व गुफा कला का विकास किया।


स्तूप -

स्तूप - मिट्टी का ढ़ेर।

 स्तूप शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद में मिलता है। 

स्तूप कला का ज्यादा सम्बन्ध बौद्ध धर्म के साथ जोड़ा जाता है।

प्रारम्भ में स्तूप केवल बुद्ध के अवशेषों पर ही बनाये गए थे।

अशोक द्वारा बनवाए गए 84000 स्तूपों को पुष्यमित्र शुंग ने नष्ट करवा दिया था।

अशोक के द्वारा निर्मित साँची का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

थड़ा - थूहा - मिट्टी का ढ़ेर।

जसवन्त थड़ा।

पहले स्तूप केवल बुद्ध के अवशेषों पर बने थे।


स्तूप के भाग -

मेधी - चबूतरा

यष्टि - स्तम्भ

वेदिका - स्तूप के चारों ओर की दीवार

गर्भगृह - मंदिर का पवित्र भाग

हर्मिका - स्तूप का पवित्र भाग

मेधी , अण्ड ,यष्टि , हर्मिका , छत्र , वेदिका , प्रदक्षिणा पथ व तोरण द्वार होते हैं।

स्तूप का पवित्र भाग हर्मिका कहलाता है।


साँची का स्तूप -

अशोक द्वारा निर्मित प्रसिद्ध स्तूप साँची का स्तूप है।

साँची का स्तूप मध्यप्रदेश में भोपाल के समीप स्थित कनखेड़ा की पहाड़ियों में है।

साँची के स्तूप में स्तूप के सभी भाग मिलते हैं।

ब्राह्मण धर्म की शालभंजिका नामक स्त्री की आकृति भी इस स्तूप पर अंकित है।

शालभंजिका का स्तूप पर अंकन यह बतलाता है कि ब्राह्मण धर्म व बौद्ध धर्म में समन्वय हो रहा था।

कपिल मुनि की तुलना ब्रह्मा के साथ की जाती है।

सारनाथ स्तूप ( इलाहाबाद ) व तक्षशिला ( वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर व रावलपिंडी का क्षेत्र कंधार जनपद कहलाता था। कंधार की राजधानी तक्षशिला थी। ) स्थित धर्मराजिका स्तूप भी मौर्य काल में निर्मित हुए थे।


स्तम्भ -

अशोक को स्तम्भ बनवाने की प्रेरणा ईरानी राजाओं से प्राप्त हुई।

वासुदेव शरण अग्रवाल अशोक के स्तम्भों को ईरानी स्तम्भों की नकल नहीं मानते हैं।


अशोक के स्तम्भों व ईरानी स्तम्भों में अंतर -

अशोक के स्तम्भ ( यष्टि ) ऊपर से पतले व नीचे से चौड़े है। जबकि ईरानी स्तम्भ ऊपर से नीचे एक समान है।

अशोक के स्तम्भ बिना किसी आधार के जमीन में गाड़े गए हैं जबकि ईरानी स्तम्भ चौकी के ऊपर स्थित है।

अशोक के स्तम्भ एक ही पत्थर के बने हुए हैं जबकि ईरानी स्तम्भ पत्थर के अलग - अलग टुकड़ों से बने हैं।

अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से मिलते हैं जबकि ईरानी स्तम्भ स्वतंत्र न मिलकर भवनों में लगे हुए मिलते हैं।

अशोक के सभी स्तम्भों पर कोई न कोई पशु आकृति मिलती है जबकि ईरानी स्तम्भों पर कोई पशु आकृति नहीं मिलती।


अशोक का सारनाथ सिंह शीर्ष स्तम्भ -

स्तम्भ के भाग -

यष्टि - ऊपर से पतला व नीचे से चौड़ा स्तम्भ।


अधोमुख कमल - यष्टि के ऊपर स्थित उल्टा कमल।


फलका या चौकी - अधोमुख कमल के ऊपर स्थित चौकी। 

चौकी के मध्य में 24 तीलियों वाला चक्र बना हुआ है।

चक्र के चारों ओर चार पशु आकृतियां बनी हुई है - गज , अश्व , बैल , सिंह।


पशुशीर्ष - चौकी के ऊपर पीठ सटाये हुए चार सिंह।

सारनाथ स्तम्भ के पास नीचे टूटा हुआ चक्र मिला है। विद्वानों के अनुसार , यह चक्र चार सिंहों के ऊपर लगा हुआ था। इसमें 32 तीलियाँ मिली है। इसे धर्मचक्र कहा जाता है।


अशोक के अलग - अलग स्तम्भों में पशु शीर्ष अलग - अलग मिलते हैं। 


अशोक के साँची स्तम्भ पर भी सारनाथ स्तम्भ की तरह चार सिंहों की आकृति मिलती है।

साँची स्तम्भ की तुलना में सारनाथ स्तम्भ में सिंह अधिक अच्छी आकृति के बने हुए हैं , इसीलिए सारनाथ स्तम्भ के सिंहों को ही राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया है।

अशोक के रामपुरवा स्तम्भ ( उत्तर प्रदेश ) पर वृषभ या बैल की आकृति व संकिसा स्तम्भ ( इलाहाबाद ) पर गज आकृति मिलती है।

अशोक के लोरिया नन्दनगढ़ स्तम्भ ( बिहार ) पर एक सिंह की आकृति मिलती है जबकि लोरिया अरराज स्तम्भ ( बिहार ) पर कोई पशु आकृति नहीं मिलती है।

डॉक्टर आर पी चंदा ने संभावना व्यक्त की है कि लोरिया अरराज स्तम्भ पर गरुड़ की आकृति हो सकती थी।


गुफा कला -

मौर्यकाल में गुफा कला का भी विकास हुआ।

गुफा कला का विकास भिक्षुओं के चौमासा के समय रुकने के लिए हुआ था।

अशोक ने बराबर पहाड़ी ( बिहार ) पर सुदामा , कर्ण चौपड़ व विश्व झोंपडी गुफा का निर्माण करवाया।

इसी पहाड़ी पर अशोक के उत्तराधिकारी दशरथ के द्वारा लोमेश ऋषि की गुफा का निर्माण करवाया गया।

कला की दृष्टि से लोमेश ऋषि की गुफा सर्वश्रेष्ठ है।

अशोक के उत्तराधिकारी दशरथ ने नागार्जुन पहाड़ी ( बिहार ) पर तीन गुफाओं का निर्माण करवाया - गोपिका , वडथिक , वहियक गुफा।


यक्ष - यक्षिणियों की प्रतिमा -

मौर्यकालीन लोक कला के अंतर्गत यक्ष व यक्षिणियों की मूर्तियों का निर्माण किया गया।

मथुरा के समीप परखम गांव से मणिभद्र नामक यक्ष की प्रतिमा मिली है।

यक्ष - यक्षिणी - देवताओं के सहायक।

राजघाट ( वाराणसी ) से त्रिमुख यक्ष की प्रतिमा मिली है।

मथुरा के समीप बड़ौदा , झींग का नगरा , पटना व उड़ीसा से भी यक्ष - यक्षिणियों की प्रतिमाएं मिलती है।


तमिलनाडु के कांची में पल्लव वंश का उदय हुआ था।

पल्लवों के समय तमिलनाडु के महाबलीपुरम में भगीरथ के गंगा अवतरण की प्रतिमा मिली , जिसे अर्जुन की तपस्यारत मूर्ति भी बताया जाता है।